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माता-पिता की जिम्मेदारी अपने बच्चों के प्रति कब समाप्त होती है?

माता-पिता की जिम्मेदारी और वैराग्य: एक गहन दृष्टिकोण

दिल्ली की संगीता शर्मा जी ने राधा वल्लभ श्री premanand maharaj_ji जी से एक महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा: माता-पिता की जिम्मेदारी अपने बच्चों के प्रति कब समाप्त होती है, जिससे वे वैराग्य का मार्ग अपनाने की सोच सकें? यह प्रश्न हमारे पारंपरिक और आधुनिक जीवन की जटिलताओं को छूने वाला है और इसका उत्तर एक विस्तृत और समझदारी से भरपूर दृष्टिकोण को सामने लाता है।

माता-पिता की जिम्मेदारी का समयसीमा

महाराज जी ने स्पष्ट किया कि माता-पिता की जिम्मेदारी तब तक समाप्त नहीं होती जब तक बच्चों का विवाह न हो जाए। इस जिम्मेदारी में केवल बच्चों को पढ़ाना-लिखाना ही नहीं, बल्कि उन्हें स्वस्थ रखना, उनकी जमीन-जायदाद की व्यवस्था करना, और अंततः उनका विवाह कराना भी शामिल है। यह प्रक्रिया तब पूरी होती है जब माता-पिता अपने बच्चों को सामाजिक और पारिवारिक दायित्वों से मुक्त कर देते हैं और वे विवाह के योग्य हो जाते हैं।

जब बच्चों का विवाह हो जाता है और वे स्वयं के जीवन में स्थिर हो जाते हैं, तब माता-पिता का यह कर्तव्य पूरा होता है। इसके बाद, वे वैराग्य का मार्ग अपना सकते हैं और भजन या धार्मिक साधना में अपने जीवन को समर्पित कर सकते हैं। यह संतोषजनक अनुभव होता है, क्योंकि उन्होंने अपने बच्चों के प्रति सभी कर्तव्यों को निभा लिया है।

नाम जप में मन न लगने की स्थिति

अहमदाबाद के हर्ष जी ने नाम जप के दौरान मन के न लगने पर चिंता व्यक्त की। महाराज जी ने इस स्थिति में नाम जप करने की प्रेरणा दी। उन्होंने कहा कि जब हमारा मन नाम जप में न लगे, तो हमें नाम जप को जोर-जबरदस्ती के साथ करना चाहिए। प्रारंभिक कठिनाई के बावजूद, जबरदस्ती नाम जप करने से धीरे-धीरे मन भी शांत हो जाएगा और यह अभ्यास अधिक सहज हो जाएगा।

महाराज जी ने बताया कि अंतःकरण में आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए जरूरी है कि बुद्धि, मन, चित्त, और अहंकार की भूमिका को समझा जाए। अंतःकरण को सुधारने के लिए, हमें अपने बुद्धि को परमात्मा में निश्चय करना चाहिए, मन को निरंतर परमात्मा में मनन करना चाहिए, चित्त को परमात्मा के चिंतन में लगाना चाहिए, और अहंकार को परमात्मा में पूर्ण समर्पण करना चाहिए। जब अंतःकरण निर्मल और शांत होता है, तब भगवत साक्षात्कार संभव होता है।

मन और बुद्धि के बीच संघर्ष

प्रयागराज के योगेश यादव जी ने मन और बुद्धि के बीच संघर्ष के बारे में प्रश्न पूछा। महाराज जी ने इस विषय को समझाया कि मन और बुद्धि अलग-अलग कार्य करते हैं। मन संकल्प और विकल्प करता है, जबकि बुद्धि निर्णय और विचार करती है। जब मन और बुद्धि के बीच सामंजस्य होता है, तो सही निर्णय लिया जाता है। लेकिन जब ये दोनों एक साथ नहीं मिलते, तो गलत निर्णय हो सकते हैं।

उदाहरण के तौर पर, यदि मन कहता है कि कुछ गलत काम करना सही है, लेकिन बुद्धि यह समझती है कि यह गलत है, तो सही निर्णय लेना जरूरी है। यदि बुद्धि और मन सही दिशा में चलते हैं, तो गलत काम नहीं होगा। इसलिए, नाम जप और ध्यान के माध्यम से बुद्धि को शुद्ध करना आवश्यक है ताकि सही निर्णय लिया जा सके और सही मार्ग पर चल सकें।

सही मार्ग पर चलने की महत्वता

महाराज जी ने बताया कि सही मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति ही जीवन में सुखी और संतुष्ट रह सकते हैं। पाप और गलत आचरण करने वाला व्यक्ति कभी भी सच्चा सुख और शांति प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए, नाम जप और धार्मिक साधना के माध्यम से बुद्धि को शुद्ध करना आवश्यक है। शुद्ध बुद्धि सही निर्णय करती है, और सही निर्णय लेने वाला व्यक्ति सही मार्ग पर चलता है, जो अंततः सच्चे सुख और संतोष की ओर ले जाता है।

भगवत स्मृति और आत्मज्ञान की साधना​

महाराज जी ने भगवत स्मृति को सबसे बड़ी साधना बताया। यह साधना निरंतर स्मरण और सेवा के माध्यम से होती है। जब व्यक्ति अपने कर्तव्यों और कर्मों को करते हुए भगवान का स्मरण करता है, तब उसे सच्चा आत्मज्ञान प्राप्त होता है। यह आत्मज्ञान व्यक्ति को भगवत साक्षात्कार की ओर ले जाता है और उसे सच्ची मुक्ति का अनुभव होता है।

महाराज जी ने इस बात पर भी जोर दिया कि नाम जप और ध्यान से व्यक्ति के अंतःकरण की शुद्धि होती है। जब अंतःकरण शुद्ध होता है, तब व्यक्ति अपने सच्चे स्वरूप को पहचानता है और उसे आत्मसाक्षात्कार होता है। यह आत्मसाक्षात्कार व्यक्ति को सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त करता है और उसे सच्चे सुख और शांति की ओर ले जाता है।

निष्कर्ष

premanand maharaj_ji जी के इस व्यापक और गहन उत्तर ने हमें यह सिखाया कि माता-पिता की जिम्मेदारी, नाम जप का महत्व, और मन-बुद्धि के संघर्ष को समझना कितना महत्वपूर्ण है। माता-पिता का कर्तव्य तब तक चलता है जब तक उनके बच्चे स्वयं को स्थिर न कर लें, और उसके बाद वे वैराग्य की ओर बढ़ सकते हैं। नाम जप और ध्यान से अंतःकरण की शुद्धि होती है, और सही मार्ग पर चलने से जीवन में सच्चा सुख और शांति प्राप्त होती है।

सत्य और शांति की ओर बढ़ने के लिए, हमें अपने जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझना और सुधारना होगा। यही सच्चा भजन और धर्म है, जो हमें आत्मज्ञान और परमात्मा के साक्षात्कार की ओर ले जाता है।

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abhaymishra 25 July 2024
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